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रविवार, अक्टूबर 05, 2025

ज्‍योतिष कक्षा: पहला दिन - ज्‍योतिष और कर्म

इस साल वास्‍तु के साथ ज्‍योतिष की कक्षा लेने का मौका मिला है। आज कक्षा का पहला दिन था। कक्षा की शुरूआत में वास्‍तु की कक्षा की ही तरह मैंने विद्यार्थियों से पूछा कि उन्‍होंने अब तक अपने विषय में क्‍या ज्ञान हासिल किया है। ताकि एक स्‍तर तक का ज्ञान होने पर उससे आगे की बात की जा सके। आश्‍चर्य की बात यह है कि करीब डेढ़ दर्जन विद्यार्थियों ने एक स्‍वर में कहा कि इस विषय में अपनी राशि पढ़ने से अधिक कोई ज्ञान नहीं है। सो कक्षा का स्‍तर शुरू हुआ शून्‍य से। चूंकि लाइव पढ़ाना एक अलग अनुभव है और ब्‍लॉग पर ज्‍योतिष लेख लिखना जुदा बात। सो मैंने निर्णय किया कि अठारह दिन तक चलने वाली कक्षाओं में विद्यार्थियों से रूबरू होने के साथ इस ब्‍लॉग पर भी रोजाना एक पोस्‍ट ठेलने का प्रयास करूंगा। ताकि लाइव अनुभव के साथ ऑनलाइन सीखने वालों को भी अच्‍छा कंटेंट मिल जाए। तो आज से शुरू करते हैं ज्‍योतिष की कक्षा का पहला दिन---

ज्‍योतिष की जरूरत क्‍यों ?
(यह सवाल मैंने खुद ने खड़ा किया। ताकि विद्यार्थियों को स्‍पष्‍ट हो सके कि जिस विषय को पढ़ना है उसे क्‍यों पढ़ा जा रहा है।)
इसके लिए मैंने अपने ही एक पुराने विचार का सहारा लिया। जिस पर मैं इसी ब्‍लॉग पर एक लेख भी ठेल चुका हूं। स्‍वंतत्रता की संभावना शीर्षक से अपने निजी विचारों वाले ब्‍लॉग में इस पर चर्चा कर चुका हूं। ज्‍योतिषीय दृष्टिकोण से इस पर कभी लेख प्रस्‍तुत नहीं कर पाया। कक्षा में कही मेरी बात कुछ इस तरह थी... 
यह सृष्टि ईश्‍वर की बनाई है। चाहे कपिल मुनि के सांख्‍य दर्शन की बात करें या शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत की। हमें ईश्‍वरवादी धर्म एक बात स्‍पष्‍ट कर देते हैं कि जो कुछ हो रहा है वह ईश्‍वर द्वारा तय है। सबकुछ पूर्व नियत है। कोई घटना या मनुष्‍य के दिमाग में उपजा विचार तक ईश्‍वर द्वारा पूर्व निर्धारित किया गया है। सृष्टि का एक भाग बनकर हम केवल उसे जी रहे हैं।
ऐसे में इच्‍छा स्‍वातंत्रय (freedom of will) की कितनी संभावना शेष रह जाती है, यह सोचने का विषय है। क्‍योंकि या तो सबकुछ पूर्व नियत हो सकता है या हमारे कर्म से बदलाव किया जा सकता है। अगर कर्म से पत्‍ता भी हिलाया जा सकता है, जो ईश्‍वर की इच्‍छा नहीं है तो सबकुछ परिवर्तित किया जा सकता है। यह कर्म आधारित सिद्धांत बन जाएगा। यानि जैसा कर्म करेंगे वैसा भोगेंगे।
तो कुछ भी पूर्व नियत नहीं रह जाता है। इस बात का यह अर्थ हुआ कि ज्‍योतिष भी समाप्‍त हो जाएगी। अब ग्रह नक्षत्रों के बजाय यह देखना होगा कि जातक ने अब तक क्‍या कर्म किए हैं। कुछ प्रश्‍न फिर अनुत्‍तरित रह जाते हैं कि जातक की पैदा होने की तिथि, परस्थिति, माता-पिता, परिजन आदि उसका खुद का चुनाव नहीं हैं, ना ही अन्‍य परिस्थितियों का चुनाव वह कर पाता है। इसका जवाब फिर से प्रारब्‍ध में आ जुड़ता है।
अगर सबकुछ पूर्व नियत है तो हमें कुछ भी करने की जरूरत ही नहीं है या जो कर रहे हैं उसका पुण्‍य और पाप भी हमारा नहीं बल्कि सृष्टिकर्ता का ही हुआ और अगर कुछ भी पूर्व नियत नहीं है तो बिना चुनाव के हमें मिले जीवन के खेल के पत्‍तों का सवाल अनुत्‍तरित रह जाता है।
अब तीसरी स्थिति सामने आती है कि ईश्‍वर ने कुछ पूर्व में ही नियत कर रखा है और कुछ इच्‍छा स्‍वातंत्रय की संभावना शेष रखी है। यहां यह स्‍पष्‍ट नहीं है कि हमें कितनी स्‍वतंत्रता मिली हुई है।”

बात दृढ़ और अदृढ़ कर्मों की
कक्षा में एक छात्र ने कहा कि हमें कर्मों का फल भी तो भुगतना है। इस पर मैंने ज्‍योतिष मार्तण्‍ड प्रोफेसर के.एस. कृष्‍णामूर्ति को ज्‍यों का त्‍यों कोट कर दिया। उन्‍होंने अपनी पुस्‍तक फण्‍डामेंटल प्रिंसीपल ऑफ एस्‍ट्रोलॉजी में स्‍पष्‍ट किया है कि कर्म तीन प्रकार के होते हैं। पहला प्रकार है दृढ़ कर्म। ये ऐसे कार्य है तो तीव्र मनोवेगों के साथ किए जाते हैं। चाहे चोरी हो या हत्‍या। पूर्व जन्‍म के इन कर्मों का फल भी तीव्रता से मिलता है। दूसरा है अदृढ़ कर्म। इस प्रकार के कर्मों के प्रति व्‍यक्ति सचेत नहीं होता है, लेकिन कर्म तो होता ही है। जैसे अनचाहे किसी का नुकसान कर देना अथवा दिल दुखा देना। ऐसे कर्मों का फल हल्‍का होता है। तीसरा प्रकार है दृढ- अदृढ़ कर्म। ये कार्य तीव्र अथवा हल्‍के मनोभावों से किए जा सकते हैं, लेकिन इनकी परिणीति से इतर भावों के स्‍तर पर कर्मों का फल मिलता है।
इन तीन अवस्‍थाओं के साथ चौथी स्थिति मैंने अपनी तरफ से जोड़ी निष्‍काम कर्म की। कर्मयोग में बताया गया है कि अगर हम किसी भी कार्य को बिना आसक्ति के भाव से करते हैं तो वे कर्म बंधन पैदा नहीं करते। कर्मयोग की ऊंची अवस्‍थाओं में ही व्‍यक्ति ऐसे कर्म कर पाता है। ऐसे जातक जन्‍म और मृत्‍यु के बंधन से मुक्‍त होकर कैवल्‍य या मोक्ष प्राप्‍त कर लेते हैं।

कल बात करेंगे ज्‍योतिष की कक्षा के दूसरे दिन की... हालांकि कक्षा शुरू हुए तीन दिन हो चुके हैं लेकिन पोस्‍ट लिखने में कुछ अधिक समय लग रहा है। ऐसे में किन्‍हीं दो दिनों को मैं एक साथ पेश कर दूंगा, ताकि आगे नियमितता बनी रह सके।

1 टिप्पणी:

  1. सिद्धार्थ जी ज्योतिष की पहली कक्षा ली, मैं भी बस अखबार में वृश्चिक राशी की जानकारी के अलावा कुछ नहीं समझता हूँ, लेकिन ज्योतिष को सीखने की प्रबल इच्छा हैं
    आपकी ज्योतिष की पुस्तक वाली पोस्ट भी पढ़ी और जल्द ही किताब ला कर पढना भी शुरू कर दूंगा. मेरा परम विश्वास हैं की बिना गुरु ज्ञान मिल ही नहीं सकता. जयपुर में एक प्राइवेट कंपनी में छोटी सी जॉब करता हूँ, एक बार मेरे किसी जानकार ने कहा था की पशु और मनुष्य में ये ही अंतर हैं की प्रभू ने मनुष्य को ५०% किस्मत और ५०% कर्म में बंधा हैं जो तय हैं वो होगा और जो निर्धारित किया जा सकने वाला हैं वो केवल कर्म आधारित होता हैं
    आपकी पोस्ट ने इस बात को फिर से दोहरा दिया हैं तो मैं अपने नियंत्रण वाले ५०% से ज्योतिष सीखना चाह रहा हूँ.
    आपकी सहायता से कुछ सीख सकूंगा अगर आप अपना चेला बना ले, शिष्य बनाने के नियम की मुझे कोई जानकारी नहीं हैं फिर भी मैंने सुना हैं की पात्रता का चुनाव गुरु पर ही छोड़ देना चाहिए
    शायद इसकी आवश्यकता हो, जन्मतिथि २८-१०-१९७९ रात्री १.३५
    धन्यवाद्

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