दो साल तक ऑफीशियली दर्शन का विद्यार्थी रहा। ऑफीशियली का मतलब पोस्ट ग्रेजुएट का विद्यार्थी रहा। उन दो सालों में ओशो, कृष्णामूर्ति, अरविन्द और विवेकानन्द के जीवन दर्शन से इतर शुद्ध लॉजिकल दर्शन से रूबरू हुआ। मेरे लिए जुदा अनुभव था। 'मैं हूं इसलिए ईश्वर है' और 'घोस्ट इन द मशीन' के पश्चिमी विचारों से लेकर 'एको ब्रह्म जगत मिथ्या' तक के विचारों को पढ़ गया था। हालांकि शंकराचार्य उत्तरार्द्ध में आते थे लेकिन मैं उन्हें भी पूर्वाद्ध में पढ़ गया। कोई काम तो था नहीं, नया नया शौक था सो पढ़ता गया। दिसम्बर की सर्दियों में जोधपुर विश्वविद्यालय से एक प्रोफेसर आए जोशी जी (अभी उनका पूरा नाम याद नहीं आ रहा, वे अंतरराष्ट्रीय स्तर के फोटोग्राफर भी हैं।) का अतिथि व्याख्यान हुआ। पहले दिन उन्होंने हल्के-फुल्के अंदाज में 'दर्शन क्या है' पर भाषण दिया। न तो भाषण समझ में आया न उसका औचित्य। एक सवाल उन्होंने शुरू से आखिर तक खड़ा किया था कि दर्शन कब शुरू होता है। और मेरे दिमाग में एक ही बात आई कि जब आदमी खा पीकर लेटी हुई मुद्रा में होता है तब यह दर्शन शुरू होता है।
भाषण के आखिर में उन्होंने पूछ ही लिया कि बताइए दर्शन कब शुरू होता है। उनका मतलब सत्य की खोज लॉजिकल तरीके से पराकाष्ठा तक पहुंचने के संदर्भ था। उन्होंने डेढ़ घण्टे के अपने भाषण में यही स्थापित करने की कोशिश की थी। लेकिन मैं अड़ गया। मेरे पास अपने ठोस कारण थे। हमारी बीकानेर की डूंगर कॉलेज में पूर्वाद्ध और उत्तरार्द्ध के अस्सी छात्रों में एक भी ऐसा बंदा नहीं था जो स्थापित परिवार से न हो। यानि सब खाते-पीते घरों के। पोस्ट ग्रेजुएट करके भी वे अपने परिवारों पर अहसान कर रहे थे, कि बेरोजगार नहीं है पढ़ रहे हैं। मेरे खा-पीने के बाद लेटने वाले लॉजिक में दम था। हमारी कॉलेज के संस्कृत के एक विद्वान अध्यापक को मेरी बात जंची नहीं। वे सोच रहे थे कि मैं दर्शन की मजाक बना रहा हूं लेकिन जोशी सर समझ गए। उन्होंने कहा आज के संदर्भ में तुम्हारी बात ठीक है लेकिन पश्चिम में अरस्तू और भारत में शंकराचार्य ने भूखे रहकर दर्शन को स्थापित किया। इस पर मेरा कहना था कि वे शुद्ध विचार थे जिन्हें अब दर्शन में शामिल किया गया है। जोशी सर का पक्ष भी उतना ही दमदार था, लेकिन मेरा लॉजिक भी कॉलेज में दर्शन को चुनौती दे रहा था। इस बीच संस्कृत वाले सर बौखला गए। वे वार्ता को सिरे पर पहुंचाने के बजाय मुझे ही डांटने लगे। उनके कारण बात सिरे पर नहीं पहुंच पा रही थी। ऐसे में भाषण और संवाद खत्म होने के बाद बाहर बरामदे में मैंने कोशिश की कि जोशी सर से एक बार फिर बात की जाए लेकिन दूसरे अध्यापकों ने मुझे मौका नहीं दिया। अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लैक्चरर से हर कोई मिलने को उत्सुक था। मेरी बात वहीं रह गई।
अंत में मैंने अपने स्तर पर ही निष्कर्ष निकाला कि अब जो दर्शन है वे इलाईट क्लास के हाथ में है ओर कुछ नया विचार आने के बजाय बस पुराने विचारों की जुगाली हो रही है। बाद में और भी पढ़ा पर कहीं भी शुद्ध दार्शनिकता नहीं मिली। उन दो सालों के बाद जब भी ओशो को पढ़ा तो लगा कि वे लॉजिक से स्थापित पुरानी बातों को चुनौती दे रहें, उसमें नया कुछ नहीं बस विरोध है। हर स्तर पर विरोध, चार्वाक को खराब बताया गया है तो चार्वाक का समर्थन कर देते हैं और नीति को सही बताया गया है तो उसके औचित्य पर सवाल खड़ा कर देते हैं। विवेकानन्द और अरविन्द पुरानी बातों को नए अंदाज में दोहरा रहे हैं। बस कृष्णामूर्ति का संवाद नया है लेकिन सिरे चढ़ता नहीं लगता। खुले सूत्र इतने अधिक हैं कि वह स्थाई नहीं दिखाई देता।
उत्तरार्द्ध में जब डेजरर्टेशन देने का मौका आया तब भी मैंने पुराने विचारों को ही लिया। बस अंतर इतना था कि दो दर्शनों को जोड़ दिया था। वास्तव में यह कहना भी गलत होगा कि जोड़ दिया। वे खुद जुड़े हुए हैं। राबिया, अमीर खुसरो, खय्याम, इकबाल जैसे विचारक वास्तव में शंकराचार्य के दर्शन की ही पैरोकारी करते हैं। अपने अंदाज में। सो मैंने विषय रखा 'इस्लाम में धर्म की दार्शनिक पृष्ठभूमि।' इसमें मैंने इस्लाम को कुरान से इतर सूफी रहस्यवाद से जोड़कर पेश किया था। जब मैंने इसे सभा में पढ़ा तो विद्यार्थियों के अलावा हमारी एचओडी का चेहरा भी ब्लैंक था। डेजरर्टेशन खत्म होने के बाद तो उन्होंने ईमानदारी से कह दिया कि सिद्धार्थ ये कहां से उठा लाए हो। खैर मुझे तो समझ नहीं आया, जो भी है इसे सबमिट कर दो। :)
आपको पढ़कर कम से कम मेरी दार्शनिकता को तो शुरु ही समझिये। सुन्दर विश्लेषण के सात अच्छा कथ्य सिद्धार्थ जी।
जवाब देंहटाएंसिर्फ दर्शन की ही बात नहीं है .. किसी भी युग में कोई नई बात को स्वीकार कर पाना कठिन होता है .. जबतक किसी के विचारों को जगह मिलती है .. तबतक बहुत कुछ बिगड चुका होता है .. यही यथार्थ है !!
जवाब देंहटाएंपेट भरा हो तो दर्शन नहीं आलस्य आता है!
जवाब देंहटाएंहां ज्ञानजी मेरा भी यही मानना है। वास्तव में कर्म से इतर ज्ञान में ईश्वर को खोजना भी एक तरह का आलस्य ही है। ज्ञान और कर्म को छोड़कर भक्ति के आधार पर ईश्वर तक पहुंचना तो उससे भी बड़ा आलस्य और ज्ञान, कर्म, भक्ति तीनों को छोड़कर प्रेम के जरिए ईश्वर को प्राप्त करने की कोशिश करना तो महाआलस्य होगा। :)
जवाब देंहटाएंसोचने का अंदाज है केवल... :)
Sateek vivechan.
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
एक अच्छा विश्लेषण पेश किया है आपने |
जवाब देंहटाएंवैसे तो मेरा दर्शन का ज्ञान शुन्य है | फिर एक बात तो जानता ही हूँ की इस्लाम तो सूफियों को शुद्ध मुसलमान नहीं मानता |
सिद्धार्थ यह सही है कि दर्शन अब भरे पेट वालों की जुगाली मात्र रह गया है । ओशो पुनरावृत्ति के शिकार है तो शंकरचार्य विवेकानन्द आदि साम्प्रदायिक लोगों के चंगुल में है । चार्वाक को लोगो ने ऋणं कृत्वा से आगे पढ़ा नहीं सांख्य आदि को तो भूल ही जाईये । बुद्ध को देशनिकाला दे दिया गया और .. और क्या सभी का यही हाल है । आप जैसे युवा यदि प्रतिप्रश्न करते है तो कहा जाता है चुप रहो तुम जानते ही क्या हो । तो बन्धु ऐसा ही है आजकल ।
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